बिहार की राजनीति का इतिहास बिहार की राजनीति ने आज़ादी से लेकर ‘जंगलराज’ तक कई करवटें ली हैं। जानिए कैसे लोकतंत्र की जड़ों में सत्ता संघर्ष, जातीय समीकरण और फुटानीबाज़ों का उदय हुआ जिसने राज्य की राजनीति की दिशा बदल दी।

आज़ादी से ‘जंगलराज’ तक: बिहार की राजनीति में लोकतंत्र से फुटानीबाज़ों के उदय तक का सफर
भारत की आज़ादी के बाद बिहार की राजनीति ने जितने उतार-चढ़ाव देखे हैं,
शायद ही किसी अन्य राज्य ने उतने अनुभव किए हों। एक समय था जब बिहार विद्या और क्रांति का केंद्र था,
और दूसरा समय आया जब यह राज्य सामाजिक विभाजन, अपराध और भ्रष्टाचार की राजनीति से जूझने लगा।
यह कहानी सिर्फ एक राज्य की राजनीति नहीं, बल्कि लोकतंत्र की उस यात्रा की है,
जहाँ सत्ता, समाज और स्वार्थ की धुरी ने देश की सबसे सशक्त जनता को बार-बार परखा।
प्रारंभिक दौर – आज़ादी और विकास की राजनीति
1947 में आज़ादी के बाद बिहार ने कांग्रेस के नेतृत्व में राजनीति का शुरुआती काल देखा।
उस दौरान राज्य में किसान आंदोलनों, उद्योगों के विकास और शिक्षा के विस्तार पर ध्यान था।
जेपी नारायण जैसे नेताओं ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने की राह दिखाई।
उनका ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन, सिर्फ राजनीतिक विद्रोह नहीं था, बल्कि यह व्यवस्था परिवर्तन की पुकार थी।
बिहार स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक रूप से अत्यंत सक्रिय राज्य के रूप में उभरा।
नेताओं में वैचारिक मतभेद थे, लेकिन उस दौर की राजनीति में संस्कार, नैतिकता और जनता के प्रति जिम्मेदारी मौजूद थी।
मंडल राजनीति और नए समीकरण
1980 और 1990 के दशक में बिहार की राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। मंडल कमीशन की सिफारिशों ने सामाजिक न्याय की दिशा में बहस को जन्म दिया। पिछड़े और दलित वर्गों के सशक्तिकरण ने राजनीति के समीकरणों को पूरी तरह बदल दिया। सत्ता अब उच्च वर्गों के हाथों से निकलकर निचले तबकों की ओर शिफ्ट होने लगी।
लालू प्रसाद यादव इस दौर के सबसे प्रभावशाली नेता बनकर उभरे।
उन्होंने ‘गरीबों के मसीहा’ की छवि बनाई और जातीय राजनीति को सत्ता की कुंजी बना दिया
। परंतु इसी के साथ तकनीकी विकास, कानून-व्यवस्था और प्रशासनिक सुधारों की दिशा में राज्य पिछड़ने लगा।
यही वह दौर था जिसने ‘जंगलराज’ शब्द को राजनीति में स्थायी बना दिया।
जंगलराज और फुटानीबाज़ों का दौर
1990 से लेकर शुरुआती 2000 तक बिहार की छवि कानून व्यवस्था के संकट से जुड़ गई।
हत्या, अपहरण, रंगदारी जैसी घटनाएं आम हो चुकी थीं। राजनीति में अपराधियों का प्रभाव बढ़ा और
फुटानीबाज़’ यानी स्थानीय गुंडागर्दी करने वाले नेताओं का उदय हुआ।
इन फुटानीबाज़ों ने सत्ता और समाज के बीच एक अघोषित संबंध बना दिया।
वे गरीब जनता के “रक्षक” के रूप में भी दिखते थे, लेकिन पर्दे के पीछे राजनैतिक संरक्षण के बदले अपराध को बढ़ावा देते थे।
चुनाव में इनकी भूमिका इतनी मजबूत रही कि किसी प्रत्याशी की जीत का फैसला अक्सर इनके समर्थन से तय होता था।
विकास का युग और बदलाव की शुरुआत
2005 के बाद नीतिश कुमार के सत्ता में आने से बिहार की राजनीति ने एक नई दिशा पकड़ी।
सड़क, शिक्षा, बिजली और कानून-व्यवस्था पर जोर देकर राज्य ने सुधारों की ओर कदम बढ़ाया।
हालांकि जातीय समीकरण अभी भी बिहार की राजनीति का अभिन्न हिस्सा बने रहे, पर शासन
व्यवस्था ने फुटानी कल्चर को धीरे-धीरे सीमित करने की कोशिश की।
आज भी बिहार की राजनीति में विकास और जातीय पहचान के बीच संघर्ष जारी है।
सोशल मीडिया, शिक्षा और युवाओं के बढ़ते प्रभाव ने राजनीति में पारदर्शिता और मुद्दा-आधारित विमर्श को जगह देना शुरू किया है।
लेकिन अतीत की छाया अब भी पूरी तरह नहीं मिट पाई है।
लोकतंत्र की जड़ें और भविष्य की आस
बिहार के राजनीतिक इतिहास से यह साफ है कि लोकतंत्र जनता के जागरूक होने से ही परिपक्व होता है।
75 वर्षों की यात्रा ने यह सिखाया कि सत्ता सिर्फ परिवर्तन से नहीं, बल्कि दृष्टिकोण से भी नई दिशा पाती है।
आज का युवा वर्ग शिक्षा, रोजगार, स्वच्छ शासन और अवसरों की तलाश में है। यही नई सोच भविष्य में बिहार की राजनीति को नया चेहरा दे सकती है।
बिहार की यह यात्रा परत-दर-परत बदलते समाज, सत्ता के स्वरूप और लोकतंत्र की शक्ति को दर्शाती है।
आज़ादी से जंगलराज तक का यह सफर इस बात का प्रतीक है कि लोकतंत्र में जनता की आवाज़ भले देर से गूंजे, पर उसका प्रभाव अटल रहता है।
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